जपजी साहिब पाठ हिंदी | Japji Sahib PDF in Hindi

Japji Sahib PDF in Hindi

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PDF NameJapji Sahib in Hindi (जपजी साहिब)
रचयिताSri Guru Nanak Dev Ji
Pages35
Paudis (पौड़ी)38
SGGS Ang1-8
LanguageHindi
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japji sahib path pdf in hindi

जपजी साहिब सिखों की एक प्रमुख प्रार्थना है इसको गुरु नानक जी के द्वारा 1604 ईस्वी में लिखा गया था यह एक गुरु नानक की महान साहित्यिक रचना है.

जपजी साहिब पाठ अत्यंत ही चमत्कारिक एवं प्रसिद्ध  अमृतवाणी होने के साथ-साथ एक बहुत ही चमत्कारिक प्रार्थना है जो कि सिखों के लिए बहुत ही ज्यादा लाभदायक साबित होती है.

 वाहेगुरु जी की कृपा पाने के लिए सिख धर्म में जब जी साहिब पाठ को किया जाता है और यह पार्ट बहुत ही भक्ति भावना के साथ पूर्ण किया जाता है.

इससे वाहेगुरु जी की सिखों पर बहुत ही अधिक कृपा होती है और उनका संपूर्ण जीवन मंगलमय हो जाता है

 जपजी साहिब अमृतवाणी गुरु ग्रंथ साहिब पर आधारित एक प्रमुख सिख ग्रंथ है यदि कोई मनुष्य रोजाना इसका पाठ करता है तो उसे एक विशेष रूप का आशीर्वाद प्राप्त होता है.

ऐसा माना जाता है कि सिख धर्म की जो मान्यताएं हैं वह हमें बताते हैं यदि कोई भक्त सच्चे मन भाव से जब जी साहिब पाठ करता है तो वाहेगुरु उसकी सभी मनोकामना को पूर्ण करते हैं और उसके जीवन को एक सफलता की राह देते हैं.

यह प्रार्थना सिख धर्म की सच्चाई और चिरस्थाई मूल्यों को मन को आने वाले बहुत ही प्यारे ढंग से  लिखा गया है इस अमृतवाणी का हमारे जीवन में बहुत ही अधिक प्रभाव होता है.

यदि आप इस अमृतवाणी  जपजी साहिब पाठ पीडीएफ इन हिंदी को डाउनलोड करना चाहते हैं तो नीचे स्क्रॉल करके आप नीचे दी गई डाउनलोड बटन पर क्लिक करके इसे अभी डाउनलोड करके पाठ करना शुरू कर सकते हैं और वाहे गुरु की कृपा प्राप्त कर सकते हैं.[Japji Sahib Path PDF in Hindi]

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जपजी साहिब पाठ हिंदी | Japji Sahib PDF in Hindi

Japji Sahib PDF in Hindi

ੴ सत नाम करता पुरख निरभओ निरवैर अकाल मूरत अजूनी सैभं गुर प्रसाद ॥
॥ जप ॥
आद सच जुगाद सच ॥
है भी सच नानक होसी भी सच ॥१॥
सोचै सोच न होवई जे सोची लख वार ॥
चुपै चुप न होवई जे लाए रहा लिव तार ॥
भुखिआ भुख न उतरी जे बंना पुरीआ भार ॥
सहस सिआणपा लख होहे त इक न चलै नाल ॥
किव सचिआरा होईऐ किव कूड़ै तुटै पाल ॥
हुकम रजाई चलणा नानक लिखिआ नाल ॥१॥

हुकमी होवन आकार हुकम न कहिआ जाई ॥
हुकमी होवन जीअ हुकम मिलै वडिआई ॥
हुकमी उतम नीच हुकम लिख दुख सुख पाईअह ॥
इकना हुकमी बखसीस इक हुकमी सदा भवाईअह ॥
हुकमै अंदर सभ को बाहर हुकम न कोए ॥
नानक हुकमै जे बुझै त हओमै कहै न कोए ॥२॥

गावै को ताण होवै किसै ताण ॥
गावै को दात जाणै नीसाण ॥
गावै को गुण वडिआईआ चार ॥
गावै को विद्या विखम वीचार ॥
गावै को साज करे तन खेह ॥
गावै को जीअ लै फिर देह ॥
गावै को जापै दिसै दूर ॥
गावै को वेखै हादरा हदूर ॥
कथना कथी न आवै तोट ॥
कथ कथ कथी कोटी कोट कोट ॥
देदा दे लैदे थक पाहे ॥
जुगा जुगंतर खाही खाहे ॥
हुकमी हुकम चलाए राहो ॥
नानक विगसै वेपरवाहो ॥३॥

साचा साहिब साच नाए भाखिआ भाओ अपार ॥
आखह मंगह देहे देहे दात करे दातार ॥
फेर कि अगै रखीऐ जित दिसै दरबार ॥
मुहौ कि बोलण बोलीऐ जित सुण धरे प्यार ॥
अमृत वेला सच नाओ वडिआई वीचार ॥
करमी आवै कपड़ा नदरी मोख दुआर ॥
नानक एवै जाणीऐ सभ आपे सचिआर ॥४॥

थापेआ न जाए कीता न होए ॥
आपे आप निरंजन सोए ॥
जिन सेविआ तेन पाया मान ॥
नानक गावीऐ गुणी निधान ॥
गावीऐ सुणीऐ मन रखीऐ भाओ ॥
दुख परहर सुख घर लै जाए ॥
गुरमुख नादं गुरमुख वेदं गुरमुख रहेआ समाई ॥
गुर ईसर गुर गोरख बरमा गुर पारबती माई ॥
जे हओ जाणा आखा नाही कहणा कथन न जाई ॥
गुरा इक देहे बुझाई ॥
सभना जीआ का इक दाता सो मै विसर न जाई ॥५॥

तीरथ नावा जे तिस भावा विण भाणे कि नाए करी ॥
जेती सिरठि उपाई वेखा विण करमा कि मिलै लई ॥
मत विच रतन जवाहर माणेक जे इक गुर की सिख सुणी ॥
गुरा इक देहे बुझाई ॥
सभना जीआ का इक दाता सो मै विसर न जाई ॥६॥

जे जुग चारे आरजा होर दसूणी होए ॥
नवा खंडा विच जाणीऐ नाल चलै सभ कोए ॥
चंगा नाओ रखाए कै जस कीरत जग लेए ॥
जे तिस नदर न आवई त वात न पुछै के ॥
कीटा अंदर कीट कर दोसी दोस धरे ॥
नानक निरगुण गुण करे गुणवंतेआ गुण दे ॥
तेहा कोए न सुझई ज तिस गुण कोए करे ॥७॥

सुणिअै सिध पीर सुर नाथ ॥
सुणिअै धरत धवल आकास ॥
सुणिअै दीप लोअ पाताल ॥
सुणिअै पोहे न सकै काल ॥
नानक भगता सदा विगास ॥
सुणिअै दूख पाप का नास ॥८॥

सुणिअै ईसर बरमा इंद ॥
सुणिअै मुख सालाहण मंद ॥
सुणिअै जोग जुगत तन भेद ॥
सुणिअै सासत सिम्रित वेद ॥
नानक भगता सदा विगास ॥
सुणिअै दूख पाप का नास ॥९॥

सुणिअै सत संतोख ज्ञान ॥
सुणिअै अठसठ का इसनान ॥
सुणिअै पड़ पड़ पावहे मान ॥
सुणिअै लागै सहज ध्यान ॥
नानक भगता सदा विगास ॥
सुणिअै दूख पाप का नास ॥१०॥

सुणिअै सरा गुणा के गाह ॥
सुणिअै सेख पीर पातिसाह ॥
सुणिअै अंधे पावहे राहो ॥
सुणिअै हाथ होवै असगाहो ॥
नानक भगता सदा विगास ॥
सुणिअै दूख पाप का नास ॥११॥

मंने की गत कही न जाए ॥
जे को कहै पिछै पछुताए ॥
कागद कलम न लिखणहार ॥
मंने का बहे करन वीचार ॥
ऐसा नाम निरंजन होए ॥
जे को मंन जाणै मन कोए ॥१२॥

मंनै सुरत होवै मन बुध ॥
मंनै सगल भवण की सुध ॥
मंनै मुहे चोटा ना खाए ॥
मंनै जम कै साथ न जाए ॥
ऐसा नाम निरंजन होए ॥
जे को मंन जाणै मन कोए ॥१३॥

मंनै मारग ठाक न पाए ॥
मंनै पत सिओ परगट जाए ॥
मंनै मग न चलै पंथ ॥
मंनै धरम सेती सनबंध ॥
ऐसा नाम निरंजन होए ॥
जे को मंन जाणै मन कोए ॥१४॥

मंनै पावहे मोख दुआर ॥
मंनै परवारै साधार ॥
मंनै तरै तारे गुर सिख ॥
मंनै नानक भवहे न भिख ॥
ऐसा नाम निरंजन होए ॥
जे को मंन जाणै मन कोए ॥१५॥

पंच परवाण पंच परधान ॥
पंचे पावहे दरगहे मान ॥
पंचे सोहहे दर राजान ॥
पंचा का गुर एक ध्यान ॥
जे को कहै करै वीचार ॥
करते कै करणै नाही सुमार ॥
धौल धरम दया का पूत ॥
संतोख थाप रखिआ जिन सूत ॥
जे को बुझै होवै सचिआर ॥
धवलै उपर केता भार ॥
धरती होर परै होर होर ॥
तिस ते भार तलै कवण जोर ॥
जीअ जात रंगा के नाव ॥
सभना लिखिआ वुड़ी कलाम ॥
एहो लेखा लिख जाणै कोए ॥
लेखा लिखिआ केता होए ॥
केता ताण सुआलिहो रूप ॥
केती दात जाणै कौण कूत ॥
कीता पसाओ एको कवाओ ॥
तिस ते होए लख दरीआओ ॥
कुदरत कवण कहा वीचार ॥
वारिआ न जावा एक वार ॥
जो तुध भावै साई भली कार ॥
तू सदा सलामत निरंकार ॥१६॥

असंख जप असंख भाओ ॥
असंख पूजा असंख तप ताओ ॥
असंख ग्रंथ मुख वेद पाठ ॥
असंख जोग मन रहहे उदास ॥
असंख भगत गुण ज्ञान वीचार ॥
असंख सती असंख दातार ॥
असंख सूर मुह भख सार ॥
असंख मोन लिव लाए तार ॥
कुदरत कवण कहा वीचार ॥
वारिआ न जावा एक वार ॥
जो तुध भावै साई भली कार ॥
तू सदा सलामत निरंकार ॥१७॥

असंख मूरख अंध घोर ॥
असंख चोर हरामखोर ॥
असंख अमर कर जाहे जोर ॥
असंख गलवढ हत्या कमाहे ॥
असंख पापी पाप कर जाहे ॥
असंख कूड़िआर कूड़े फिराहे ॥
असंख मलेछ मल भख खाहे ॥
असंख निंदक सिर करह भार ॥
नानक नीच कहै वीचार ॥
वारिआ न जावा एक वार ॥
जो तुध भावै साई भली कार ॥
तू सदा सलामत निरंकार ॥१८॥

असंख नाव असंख थाव ॥
अगम अगम असंख लोअ ॥
असंख कहह सिर भार होए ॥
अखरी नाम अखरी सालाह ॥
अखरी ज्ञान गीत गुण गाह ॥
अखरी लिखण बोलण बाण ॥
अखरा सिर संजोग वखाण ॥
जिन एहे लिखे तिस सिर नाहे ॥
जिव फुरमाए तेव तेव पाहे ॥
जेता कीता तेता नाओ ॥
विण नावै नाही को थाओ ॥
कुदरत कवण कहा वीचार ॥
वारिआ न जावा एक वार ॥
जो तुध भावै साई भली कार ॥
तू सदा सलामत निरंकार ॥१९॥

Jap Ji Sahib in Hindi Pauri पौड़ी 19-27

भरीअै हथ पैर तन देह ॥
पाणी धोतै उतरस खेह ॥
मूत पलीती कपड़ होए ॥
दे साबूण लईऐ ओहो धोए ॥
भरीअै मत पापा कै संग ॥
ओहो धोपै नावै कै रंग ॥
पुंनी पापी आखण नाहे ॥
कर कर करणा लिख लै जाहो ॥
आपे बीज आपे ही खाहो ॥
नानक हुकमी आवहो जाहो ॥२०॥

तीरथ तप दया दत दान ॥
जे को पावै तेल का मान ॥
सुणेआ मंनिआ मन कीता भाओ ॥
अंतरगत तीरथ मल नाओ ॥
सभ गुण तेरे मै नाही कोए ॥
विण गुण कीते भगत न होए ॥
सुअसत आथ बाणी बरमाओ ॥
सत सुहाण सदा मन चाओ ॥
कवण सु वेला वखत कवण कवण थित कवण वार ॥
कवण सि रुती माहो कवण जित होआ आकार ॥
वेल न पाईआ पंडती जे होवै लेख पुराण ॥
वखत न पाइओ कादीआ जे लिखन लेख कुराण ॥
थित वार ना जोगी जाणै रुत माहो ना कोई ॥
जा करता सिरठी कओ साजे आपे जाणै सोई ॥
किव कर आखा किव सालाही किओ वरनी किव जाणा ॥
नानक आखण सभ को आखै इक दू इक सिआणा ॥
वडा साहिब वडी नाई कीता जा का होवै ॥
नानक जे को आपौ जाणै अगै गया न सोहै ॥२१॥

पाताला पाताल लख आगासा आगास ॥
ओड़क ओड़क भाल थके वेद कहन इक वात ॥
सहस अठारह कहन कतेबा असुलू इक धात ॥
लेखा होए त लिखीऐ लेखै होए विणास ॥
नानक वडा आखीऐ आपे जाणै आप ॥२२॥

सालाही सालाहे एती सुरत न पाईआ ॥
नदीआ अतै वाह पवह समुंद न जाणीअहे ॥
समुंद साह सुलतान गिरहा सेती माल धन ॥
कीड़ी तुल न होवनी जे तिस मनहो न वीसरहे ॥२३॥

अंत न सिफती कहण न अंत ॥
अंत न करणै देण न अंत ॥
अंत न वेखण सुणण न अंत ॥
अंत न जापै किआ मन मंत ॥
अंत न जापै कीता आकार ॥
अंत न जापै पारावार ॥
अंत कारण केते बिललाहे ॥
ता के अंत न पाए जाहे ॥
एहो अंत न जाणै कोए ॥
बहुता कहीऐ बहुता होए ॥
वडा साहिब ऊचा थाओ ॥
ऊचे उपर ऊचा नाओ ॥
एवड ऊचा होवै कोए ॥
तिस ऊचे कओ जाणै सोए ॥
जेवड आप जाणै आप आप ॥
नानक नदरी करमी दात ॥२४॥

बहुता करम लिखिआ ना जाए ॥
वडा दाता तेल न तमाए ॥
केते मंगहे जोध अपार ॥
केतेआ गणत नही वीचार ॥
केते खप तुटहे वेकार ॥
केते लै लै मुकर पाहे ॥
केते मूरख खाही खाहे ॥
केतेआ दूख भूख सद मार ॥
एहे भि दात तेरी दातार ॥
बंद खलासी भाणै होए ॥
होर आख न सकै कोए ॥
जे को खाएक आखण पाए ॥
ओहो जाणै जेतीआ मुहे खाए ॥
आपे जाणै आपे देए ॥
आखह सि भि केई केए ॥
जिस नो बखसे सिफत सालाह ॥
नानक पातसाही पातसाहो ॥२५॥

अमुल गुण अमुल वापार ॥
अमुल वापारीए अमुल भंडार ॥
अमुल आवह अमुल लै जाहे ॥
अमुल भाए अमुला समाहे ॥
अमुल धरम अमुल दीबाण ॥
अमुल तुल अमुल परवाण ॥
अमुल बखसीस अमुल नीसाण ॥
अमुल करम अमुल फुरमाण ॥
अमुलो अमुल आखिआ न जाए ॥
आख आख रहे लिव लाए ॥
आखहे वेद पाठ पुराण ॥
आखहे पड़े करह वखिआण ॥
आखहे बरमे आखहे इंद ॥
आखहे गोपी तै गोविंद ॥
आखहे ईसर आखहे सिध ॥
आखहे केते कीते बुध ॥
आखहे दानव आखहे देव ॥
आखहे सुर नर मुन जन सेव ॥
केते आखहे आखण पाहे ॥
केते कह कह उठ उठ जाहे ॥
एते कीते होर करेहे ॥
ता आख न सकह केई केए ॥
जेवड भावै तेवड होए ॥
नानक जाणै साचा सोए ॥
जे को आखै बोलुविगाड़ ॥
ता लिखीऐ सिर गावारा गावार ॥२६॥

सो दर केहा सो घर केहा जित बह सरब समाले ॥
वाजे नाद अनेक असंखा केते वावणहारे ॥
केते राग परी सिओ कहीअन केते गावणहारे ॥
गावह तुहनो पौण पाणी बैसंतर गावै राजा धरम दुआरे ॥
गावह चित गुपत लिख जाणह लिख लिख धरम वीचारे ॥
गावह ईसर बरमा देवी सोहन सदा सवारे ॥
गावह इंद इदासण बैठे देवतेआ दर नाले ॥
गावह सिध समाधी अंदर गावन साध विचारे ॥
गावन जती सती संतोखी गावह वीर करारे ॥
गावन पंडित पड़न रखीसर जुग जुग वेदा नाले ॥
गावहे मोहणीआ मन मोहन सुरगा मछ पयाले ॥
गावन रतन उपाए तेरे अठसठ तीरथ नाले ॥
गावहे जोध महाबल सूरा गावह खाणी चारे ॥
गावहे खंड मंडल वरभंडा कर कर रखे धारे ॥
सेई तुधनो गावह जो तु भावन रते तेरे भगत रसाले ॥
होर केते गावन से मै चित न आवन नानक क्या वीचारे ॥
सोई सोई सदा सच साहिब साचा साची नाई ॥
है भी होसी जाए न जासी रचना जिन रचाई ॥
रंगी रंगी भाती कर कर जिनसी माया जिन उपाई ॥
कर कर वेखै कीता आपणा जिव तिस दी वडिआई ॥
जो तिस भावै सोई करसी हुकम न करणा जाई ॥
सो पातसाहो साहा पातसाहिब नानक रहण रजाई ॥२७॥

Jap Ji Sahib in Hindi Pauri 27-38

मुंदा संतोख सरम पत झोली ध्यान की करह बिभूत ॥
खिंथा काल कुआरी काया जुगत डंडा परतीत ॥
आई पंथी सगल जमाती मन जीतै जग जीत ॥
आदेस तिसै आदेस ॥
आद अनील अनाद अनाहत जुग जुग एको वेस ॥२८॥

भुगत ज्ञान दया भंडारण घट घट वाजह नाद ॥
आप नाथ नाथी सभ जा की रिध सिध अवरा साद ॥
संजोग विजोग दुए कार चलावहे लेखे आवहे भाग ॥
आदेस तिसै आदेस ॥
आद अनील अनाद अनाहत जुग जुग एको वेस ॥२९॥

एका माई जुगत विआई तेन चेले परवाण ॥
इक संसारी इक भंडारी इक लाए दीबाण ॥
जिव तिस भावै तिवै चलावै जिव होवै फुरमाण ॥
ओहो वेखै ओना नदर न आवै बहुता एहो विडाण ॥
आदेस तिसै आदेस ॥
आद अनील अनाद अनाहत जुग जुग एको वेस ॥३०॥

आसण लोए लोए भंडार ॥
जो किछ पाया सु एका वार ॥
कर कर वेखै सिरजणहार ॥
नानक सचे की साची कार ॥
आदेस तिसै आदेस ॥
आद अनील अनाद अनाहत जुग जुग एको वेस ॥३१॥

इक दू जीभौ लख होहे लख होवह लख वीस ॥
लख लख गेड़ा आखीअह एक नाम जगदीस ॥
एत राहे पत पवड़ीआ चड़ीऐ होए इकीस ॥
सुण गला आकास की कीटा आई रीस ॥
नानक नदरी पाईऐ कूड़ी कूड़ै ठीस ॥३२॥

आखण जोर चुपै नह जोर ॥
जोर न मंगण देण न जोर ॥
जोर न जीवण मरण नह जोर ॥
जोर न राज माल मन सोर ॥
जोर न सुरती ज्ञान वीचार ॥
जोर न जुगती छुटै संसार ॥
जिस हथ जोर कर वेखै सोए ॥
नानक उतम नीच न कोए ॥३३॥

राती रुती थिती वार ॥
पवण पाणी अगनी पाताल ॥
तिस विच धरती थाप रखी धरम साल ॥
तिस विच जीअ जुगत के रंग ॥
तिन के नाम अनेक अनंत ॥
करमी करमी होए वीचार ॥
सचा आप सचा दरबार ॥
तिथै सोहन पंच परवाण ॥
नदरी करम पवै नीसाण ॥
कच पकाई ओथै पाए ॥
नानक गया जापै जाए ॥३४॥

धरम खंड का एहो धरम ॥
ज्ञान खंड का आखहो करम ॥
केते पवण पाणी वैसंतर केते कान्ह महेस ॥
केते बरमे घाड़त घड़ीअह रूप रंग के वेस ॥
केतीआ करम भूमी मेर केते केते धू उपदेस ॥
केते इंद चंद सूर केते केते मंडल देस ॥
केते सिध बुध नाथ केते केते देवी वेस ॥
केते देव दानव मुन केते केते रतन समुंद ॥
केतीआ खाणी केतीआ बाणी केते पात नरिंद ॥
केतीआ सुरती सेवक केते नानक अंत न अंत ॥३५॥

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ज्ञान खंड मह ज्ञान परचंड ॥
तिथै नाद बिनोद कोड अनंद ॥
सरम खंड की बाणी रूप ॥
तिथै घाड़त घड़ीऐ बहुत अनूप ॥
ता कीआ गला कथीआ ना जाहे ॥
जे को कहै पिछै पछुताए ॥
तिथै घड़ीअै सुरत मत मन बुध ॥
तिथै घड़ीअै सुरा सिधा की सुध ॥३६॥

करम खंड की बाणी जोर ॥
तिथै होर न कोई होर ॥
तिथै जोध महाबल सूर ॥
तिन मह राम रहिआ भरपूर ॥
तिथै सीतो सीता महिमा माहे ॥
ता के रूप न कथने जाहे ॥
ना ओह मरह न ठागे जाहे ॥
जिन कै राम वसै मन माहे ॥
तिथै भगत वसह के लोअ ॥
करह अनंद सचा मन सोए ॥
सच खंड वसै निरंकार ॥
कर कर वेखै नदर निहाल ॥
तिथै खंड मंडल वरभंड ॥
जे को कथै त अंत न अंत ॥
तिथै लोअ लोअ आकार ॥
जिव जिव हुकम तिवै तिव कार ॥
वेखै विगसै कर वीचार ॥
नानक कथना करड़ा सार ॥३७॥

जत पाहारा धीरज सुनिआर ॥
अहरण मत वेद हथीआर ॥
भओ खला अगन तप ताओ ॥
भांडा भाओ अमृत तित ढाल ॥
घड़ीअै सबद सची टकसाल ॥
जिन कओ नदर करम तिन कार ॥
नानक नदरी नदर निहाल ॥३८॥

सलोक ॥
पवण गुरू पाणी पिता माता धरत महत ॥
दिवस रात दुए दाई दाया खेलै सगल जगत ॥
चंगिआईआ बुरिआईआ वाचै धरम हदूर ॥
करमी आपो आपणी के नेड़ै के दूर ॥
जिनी नाम धिआया गए मसकत घाल ॥
नानक ते मुख उजले केती छुटी नाल ॥१॥

Japji Sahib path in punjabi written

ੴ ਸਤਿ ਨਾਮੁ ਕਰਤਾ ਪੁਰਖੁ ਨਿਰਭਉ ਨਿਰਵੈਰੁ ਅਕਾਲ ਮੂਰਤਿ ਅਜੂਨੀ ਸੈਭੰ ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ॥
॥ ਜਪੁ॥
ਆਦਿ ਸਚੁ ਜੁਗਾਦਿ ਸਚੁ॥ ਹੈ ਭੀ ਸਚੁ ਨਾਨਕ ਹੋਸੀ ਭੀ ਸਚੁ॥ ੧॥
ਸੋਚੈ ਸੋਚਿ ਨ ਹੋਵਈ ਜੇ ਸੋਚੀ ਲਖ ਵਾਰ॥
ਚੁਪੈ ਚੁਪ ਨ ਹੋਵਈ ਜੇ ਲਾਇ ਰਹਾ ਲਿਵ ਤਾਰ॥
ਭੁਖਿਆ ਭੁਖ ਨ ਉਤਰੀ ਜੇ ਬੰਨਾ ਪੁਰੀਆ ਭਾਰ॥
ਸਹਸ ਸਿਆਣਪਾ ਲਖ ਹੋਹਿ ਤ ਇਕ ਨ ਚਲੈ ਨਾਲਿ॥
ਕਿਵ ਸਚਿਆਰਾ ਹੋਈਐ ਕਿਵ ਕੂੜੈ ਤੁਟੈ ਪਾਲਿ॥
ਹੁਕਮਿ ਰਜਾਈ ਚਲਣਾ ਨਾਨਕ ਲਿਖਿਆ ਨਾਲਿ॥ ੧॥
ਹੁਕਮੀ ਹੋਵਨਿ ਆਕਾਰ ਹੁਕਮੁ ਨ ਕਹਿਆ ਜਾਈ॥
ਹੁਕਮੀ ਹੋਵਨਿ ਜੀਅ ਹੁਕਮਿ ਮਿਲੈ ਵਡਿਆਈ॥
ਹੁਕਮੀ ਉਤਮੁ ਨੀਚੁ ਹੁਕਮਿ ਲਿਖਿ ਦੁਖ ਸੁਖ ਪਾਈਅਹਿ॥
ਇਕਨਾ ਹੁਕਮੀ ਬਖਸੀਸ ਇਕਿ ਹੁਕਮੀ ਸਦਾ ਭਵਾਈਅਹਿ॥
ਹੁਕਮੈ ਅੰਦਰਿ ਸਭੁ ਕੋ ਬਾਹਰਿ ਹੁਕਮ ਨ ਕੋਇ॥
ਨਾਨਕ ਹੁਕਮੈ ਜੇ ਬੁਝੈ ਤ ਹਉਮੈ ਕਹੈ ਨ ਕੋਇ॥ ੨॥
ਗਾਵੈ ਕੋ ਤਾਣੁ ਹੋਵੈ ਕਿਸੈ ਤਾਣੁ॥
ਗਾਵੈ ਕੋ ਦਾਤਿ ਜਾਣੈ ਨੀਸਾਣੁ॥
ਗਾਵੈ ਕੋ ਗੁਣ ਵਡਿਆਈਆ ਚਾਰ॥
ਗਾਵੈ ਕੋ ਵਿਦਿਆ ਵਿਖਮੁ ਵੀਚਾਰੁ॥
ਗਾਵੈ ਕੋ ਸਾਜਿ ਕਰੇ ਤਨੁ ਖੇਹ॥
ਗਾਵੈ ਕੋ ਜੀਅ ਲੈ ਫਿਰਿ ਦੇਹ॥
ਗਾਵੈ ਕੋ ਜਾਪੈ ਦਿਸੈ ਦੂਰਿ॥
ਗਾਵੈ ਕੋ ਵੇਖੈ ਹਾਦਰਾ ਹਦੂਰਿ॥
ਕਥਨਾ ਕਥੀ ਨ ਆਵੈ ਤੋਟਿ॥
ਕਥਿ ਕਥਿ ਕਥੀ ਕੋਟੀ ਕੋਟਿ ਕੋਟਿ॥
ਦੇਦਾ ਦੇ ਲੈਦੇ ਥਕਿ ਪਾਹਿ॥
ਜੁਗਾ ਜੁਗੰਤਰਿ ਖਾਹੀ ਖਾਹਿ॥
ਹੁਕਮੀ ਹੁਕਮੁ ਚਲਾਏ ਰਾਹੁ॥
ਨਾਨਕ ਵਿਗਸੈ ਵੇਪਰਵਾਹੁ॥ ੩॥
ਸਾਚਾ ਸਾਹਿਬੁ ਸਾਚੁ ਨਾਇ ਭਾਖਿਆ ਭਾਉ ਅਪਾਰੁ॥
ਆਖਹਿ ਮੰਗਹਿ ਦੇਹਿ ਦੇਹਿ ਦਾਤਿ ਕਰੇ ਦਾਤਾਰੁ॥
ਫੇਰਿ ਕਿ ਅਗੈ ਰਖੀਐ ਜਿਤੁ ਦਿਸੈ ਦਰਬਾਰੁ॥
ਮੁਹੌ ਕਿ ਬੋਲਣੁ ਬੋਲੀਐ ਜਿਤੁ ਸੁਣਿ ਧਰੇ ਪਿਆਰੁ॥
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਵੇਲਾ ਸਚੁ ਨਾਉ ਵਡਿਆਈ ਵੀਚਾਰੁ॥
ਕਰਮੀ ਆਵੈ ਕਪੜਾ ਨਦਰੀ ਮੋਖੁ ਦੁਆਰੁ॥
ਨਾਨਕ ਏਵੈ ਜਾਣੀਐ ਸਭੁ ਆਪੇ ਸਚਿਆਰੁ॥ ੪॥
ਥਾਪਿਆ ਨ ਜਾਇ ਕੀਤਾ ਨ ਹੋਇ॥
ਆਪੇ ਆਪਿ ਨਿਰੰਜਨੁ ਸੋਇ॥
ਜਿਨਿ ਸੇਵਿਆ ਤਿਨਿ ਪਾਇਆ ਮਾਨੁ॥
ਨਾਨਕ ਗਾਵੀਐ ਗੁਣੀ ਨਿਧਾਨੁ॥
ਗਾਵੀਐ ਸੁਣੀਐ ਮਨਿ ਰਖੀਐ ਭਾਉ॥
ਦੁਖੁ ਪਰਹਰਿ ਸੁਖੁ ਘਰਿ ਲੈ ਜਾਇ॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਦੰ ਗੁਰਮੁਖਿ ਵੇਦੰ ਗੁਰਮੁਖਿ ਰਹਿਆ ਸਮਾਈ॥
ਗੁਰੁ ਈਸਰੁ ਗੁਰੁ ਗੋਰਖੁ ਬਰਮਾ ਗੁਰੁ ਪਾਰਬਤੀ ਮਾਈ॥
ਜੇ ਹਉ ਜਾਣਾ ਆਖਾ ਨਾਹੀ ਕਹਣਾ ਕਥਨੁ ਨ ਜਾਈ॥
ਗੁਰਾ ਇਕ ਦੇਹਿ ਬੁਝਾਈ॥
ਸਭਨਾ ਜੀਆ ਕਾ ਇਕੁ ਦਾਤਾ ਸੋ ਮੈ ਵਿਸਰਿ ਨ ਜਾਈ॥ ੫॥
ਤੀਰਥਿ ਨਾਵਾ ਜੇ ਤਿਸੁ ਭਾਵਾ ਵਿਣੁ ਭਾਣੇ ਕਿ ਨਾਇ ਕਰੀ॥
ਜੇਤੀ ਸਿਰਠਿ ਉਪਾਈ ਵੇਖਾ ਵਿਣੁ ਕਰਮਾ ਕਿ ਮਿਲੈ ਲਈ॥
ਮਤਿ ਵਿਚਿ ਰਤਨ ਜਵਾਹਰ ਮਾਣਿਕ ਜੇ ਇਕ ਗੁਰ ਕੀ ਸਿਖ ਸੁਣੀ॥
ਗੁਰਾ ਇਕ ਦੇਹਿ ਬੁਝਾਈ॥
ਸਭਨਾ ਜੀਆ ਕਾ ਇਕੁ ਦਾਤਾ ਸੋ ਮੈ ਵਿਸਰਿ ਨ ਜਾਈ॥ ੬॥
ਜੇ ਜੁਗ ਚਾਰੇ ਆਰਜਾ ਹੋਰ ਦਸੂਣੀ ਹੋਇ॥

ਨਵਾ ਖੰਡਾ ਵਿਚਿ ਜਾਣੀਐ ਨਾਲਿ ਚਲੈ ਸਭੁ ਕੋਇ॥
ਚੰਗਾ ਨਾਉ ਰਖਾਇ ਕੈ ਜਸੁ ਕੀਰਤਿ ਜਗਿ ਲੇਇ॥
ਜੇ ਤਿਸੁ ਨਦਰਿ ਨ ਆਵਈ ਤ ਵਾਤ ਨ ਪੁਛੈ ਕੇ॥
ਕੀਟਾ ਅੰਦਰਿ ਕੀਟੁ ਕਰਿ ਦੋਸੀ ਦੋਸੁ ਧਰੇ॥
ਨਾਨਕ ਨਿਰਗੁਣਿ ਗੁਣੁ ਕਰੇ ਗੁਣਵੰਤਿਆ ਗੁਣੁ ਦੇ॥
ਤੇਹਾ ਕੋਇ ਨ ਸੁਝਈ ਜਿ ਤਿਸੁ ਗੁਣੁ ਕੋਇ ਕਰੇ॥ ੭॥
ਸੁਣਿਐ ਸਿਧ ਪੀਰ ਸੁਰਿ ਨਾਥ॥
ਸੁਣਿਐ ਧਰਤਿ ਧਵਲ ਆਕਾਸ॥
ਸੁਣਿਐ ਦੀਪ ਲੋਅ ਪਾਤਾਲ॥
ਸੁਣਿਐ ਪੋਹਿ ਨ ਸਕੈ ਕਾਲੁ॥
ਨਾਨਕ ਭਗਤਾ ਸਦਾ ਵਿਗਾਸੁ॥
ਸੁਣਿਐ ਦੂਖ ਪਾਪ ਕਾ ਨਾਸੁ॥ ੮॥
ਸੁਣਿਐ ਈਸਰੁ ਬਰਮਾ ਇੰਦੁ॥
ਸੁਣਿਐ ਮੁਖਿ ਸਾਲਾਹਣ ਮੰਦੁ॥
ਸੁਣਿਐ ਜੋਗ ਜੁਗਤਿ ਤਨਿ ਭੇਦ॥
ਸੁਣਿਐ ਸਾਸਤ ਸਿਮ੍ਰਿਤਿ ਵੇਦ॥
ਨਾਨਕ ਭਗਤਾ ਸਦਾ ਵਿਗਾਸੁ॥
ਸੁਣਿਐ ਦੂਖ ਪਾਪ ਕਾ ਨਾਸੁ॥ ੯॥
ਸੁਣਿਐ ਸਤੁ ਸੰਤੋਖੁ ਗਿਆਨੁ॥
ਸੁਣਿਐ ਅਠਸਠਿ ਕਾ ਇਸਨਾਨੁ॥
ਸੁਣਿਐ ਪੜਿ ਪੜਿ ਪਾਵਹਿ ਮਾਨੁ॥
ਸੁਣਿਐ ਲਾਗੈ ਸਹਜਿ ਧਿਆਨੁ॥
ਨਾਨਕ ਭਗਤਾ ਸਦਾ ਵਿਗਾਸੁ॥
ਸੁਣਿਐ ਦੂਖ ਪਾਪ ਕਾ ਨਾਸੁ॥ ੧੦॥
ਸੁਣਿਐ ਸਰਾ ਗੁਣਾ ਕੇ ਗਾਹ॥
ਸੁਣਿਐ ਸੇਖ ਪੀਰ ਪਾਤਿਸਾਹ॥
ਸੁਣਿਐ ਅੰਧੇ ਪਾਵਹਿ ਰਾਹੁ॥
ਸੁਣਿਐ ਹਾਥ ਹੋਵੈ ਅਸਗਾਹੁ॥
ਨਾਨਕ ਭਗਤਾ ਸਦਾ ਵਿਗਾਸੁ॥
ਸੁਣਿਐ ਦੂਖ ਪਾਪ ਕਾ ਨਾਸੁ॥ ੧੧॥
ਮੰਨੇ ਕੀ ਗਤਿ ਕਹੀ ਨ ਜਾਇ॥
ਜੇ ਕੋ ਕਹੈ ਪਿਛੈ ਪਛੁਤਾਇ॥
ਕਾਗਦਿ ਕਲਮ ਨ ਲਿਖਣਹਾਰੁ॥
ਮੰਨੇ ਕਾ ਬਹਿ ਕਰਨਿ ਵੀਚਾਰੁ॥
ਐਸਾ ਨਾਮੁ ਨਿਰੰਜਨੁ ਹੋਇ॥
ਜੇ ਕੋ ਮੰਨਿ ਜਾਣੈ ਮਨਿ ਕੋਇ॥ ੧੨॥
ਮੰਨੈ ਸੁਰਤਿ ਹੋਵੈ ਮਨਿ ਬੁਧਿ॥
ਮੰਨੈ ਸਗਲ ਭਵਣ ਕੀ ਸੁਧਿ॥
ਮੰਨੈ ਮੁਹਿ ਚੋਟਾ ਨਾ ਖਾਇ॥
ਮੰਨੈ ਜਮ ਕੈ ਸਾਥਿ ਨ ਜਾਇ॥
ਐਸਾ ਨਾਮੁ ਨਿਰੰਜਨੁ ਹੋਇ॥
ਜੇ ਕੋ ਮੰਨਿ ਜਾਣੈ ਮਨਿ ਕੋਇ॥ ੧੩॥
ਮੰਨੈ ਮਾਰਗਿ ਠਾਕ ਨ ਪਾਇ॥
ਮੰਨੈ ਪਤਿ ਸਿਉ ਪਰਗਟੁ ਜਾਇ॥
ਮੰਨੈ ਮਗੁ ਨ ਚਲੈ ਪੰਥੁ॥
ਮੰਨੈ ਧਰਮ ਸੇਤੀ ਸਨਬੰਧੁ॥
ਐਸਾ ਨਾਮੁ ਨਿਰੰਜਨੁ ਹੋਇ॥
ਜੇ ਕੋ ਮੰਨਿ ਜਾਣੈ ਮਨਿ ਕੋਇ॥ ੧੪॥
ਮੰਨੈ ਪਾਵਹਿ ਮੋਖੁ ਦੁਆਰੁ॥ ਮੰਨੈ ਪਰਵਾਰੈ ਸਾਧਾਰੁ॥
ਮੰਨੈ ਤਰੈ ਤਾਰੇ ਗੁਰੁ ਸਿਖ॥ ਮੰਨੈ ਨਾਨਕ ਭਵਹਿ ਨ ਭਿਖ॥
ਐਸਾ ਨਾਮੁ ਨਿਰੰਜਨੁ ਹੋਇ॥
ਜੇ ਕੋ ਮੰਨਿ ਜਾਣੈ ਮਨਿ ਕੋਇ॥ ੧੫॥
ਪੰਚ ਪਰਵਾਣ ਪੰਚ ਪਰਧਾਨੁ॥
ਪੰਚੇ ਪਾਵਹਿ ਦਰਗਹਿ ਮਾਨੁ॥
ਪੰਚੇ ਸੋਹਹਿ ਦਰਿ ਰਾਜਾਨੁ॥
ਪੰਚਾ ਕਾ ਗੁਰੁ ਏਕੁ ਧਿਆਨੁ॥
ਜੇ ਕੋ ਕਹੈ ਕਰੈ ਵੀਚਾਰੁ॥
ਕਰਤੇ ਕੈ ਕਰਣੈ ਨਾਹੀ ਸੁਮਾਰੁ॥
ਧੌਲੁ ਧਰਮੁ ਦਇਆ ਕਾ ਪੂਤੁ॥
ਸੰਤੋਖੁ ਥਾਪਿ ਰਖਿਆ ਜਿਨਿ ਸੂਤਿ॥
ਜੇ ਕੋ ਬੁਝੈ ਹੋਵੈ ਸਚਿਆਰੁ॥
ਧਵਲੈ ਉਪਰਿ ਕੇਤਾ ਭਾਰੁ॥
ਧਰਤੀ ਹੋਰੁ ਪਰੈ ਹੋਰੁ ਹੋਰੁ॥
ਤਿਸ ਤੇ ਭਾਰੁ ਤਲੈ ਕਵਣੁ ਜੋਰੁ॥
ਜੀਅ ਜਾਤਿ ਰੰਗਾ ਕੇ ਨਾਵ॥
ਸਭਨਾ ਲਿਖਿਆ ਵੁੜੀ ਕਲਾਮ॥
ਏਹੁ ਲੇਖਾ ਲਿਖਿ ਜਾਣੈ ਕੋਇ॥
ਲੇਖਾ ਲਿਖਿਆ ਕੇਤਾ ਹੋਇ॥
ਕੇਤਾ ਤਾਣੁ ਸੁਆਲਿਹੁ ਰੂਪੁ॥
ਕੇਤੀ ਦਾਤਿ ਜਾਣੈ ਕੌਣੁ ਕੂਤੁ॥
ਕੀਤਾ ਪਸਾਉ ਏਕੋ ਕਵਾਉ॥
ਤਿਸ ਤੇ ਹੋਏ ਲਖ ਦਰੀਆਉ॥
ਕੁਦਰਤਿ ਕਵਣ ਕਹਾ ਵੀਚਾਰੁ॥
ਵਾਰਿਆ ਨ ਜਾਵਾ ਏਕ ਵਾਰ॥
ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਸਾਈ ਭਲੀ ਕਾਰ॥
ਤੂ ਸਦਾ ਸਲਾਮਤਿ ਨਿਰੰਕਾਰ॥ ੧੬॥
ਅਸੰਖ ਜਪ ਅਸੰਖ ਭਾਉ॥
ਅਸੰਖ ਪੂਜਾ ਅਸੰਖ ਤਪ ਤਾਉ॥
ਅਸੰਖ ਗਰੰਥ ਮੁਖਿ ਵੇਦ ਪਾਠ॥
ਅਸੰਖ ਜੋਗ ਮਨਿ ਰਹਹਿ ਉਦਾਸ॥
ਅਸੰਖ ਭਗਤ ਗੁਣ ਗਿਆਨ ਵੀਚਾਰ॥
ਅਸੰਖ ਸਤੀ ਅਸੰਖ ਦਾਤਾਰ॥
ਅਸੰਖ ਸੂਰ ਮੁਹ ਭਖ ਸਾਰ॥
ਅਸੰਖ ਮੋਨਿ ਲਿਵ ਲਾਇ ਤਾਰ॥
ਕੁਦਰਤਿ ਕਵਣ ਕਹਾ ਵੀਚਾਰੁ॥
ਵਾਰਿਆ ਨ ਜਾਵਾ ਏਕ ਵਾਰ॥
ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਸਾਈ ਭਲੀ ਕਾਰ॥
ਤੂ ਸਦਾ ਸਲਾਮਤਿ ਨਿਰੰਕਾਰ॥ ੧੭॥
ਅਸੰਖ ਮੂਰਖ ਅੰਧ ਘੋਰ॥
ਅਸੰਖ ਚੋਰ ਹਰਾਮਖੋਰ॥
ਅਸੰਖ ਅਮਰ ਕਰਿ ਜਾਹਿ ਜੋਰ॥
ਅਸੰਖ ਗਲਵਢ ਹਤਿਆ ਕਮਾਹਿ॥
ਅਸੰਖ ਪਾਪੀ ਪਾਪੁ ਕਰਿ ਜਾਹਿ॥
ਅਸੰਖ ਕੂੜਿਆਰ ਕੂੜੇ ਫਿਰਾਹਿ॥
ਅਸੰਖ ਮਲੇਛ ਮਲੁ ਭਖਿ ਖਾਹਿ॥
ਅਸੰਖ ਨਿੰਦਕ ਸਿਰਿ ਕਰਹਿ ਭਾਰੁ॥
ਨਾਨਕੁ ਨੀਚੁ ਕਹੈ ਵੀਚਾਰੁ॥
ਵਾਰਿਆ ਨ ਜਾਵਾ ਏਕ ਵਾਰ॥
ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਸਾਈ ਭਲੀ ਕਾਰ॥
ਤੂ ਸਦਾ ਸਲਾਮਤਿ ਨਿਰੰਕਾਰ॥ ੧੮॥
ਅਸੰਖ ਨਾਵ ਅਸੰਖ ਥਾਵ॥
ਅਗੰਮ ਅਗੰਮ ਅਸੰਖ ਲੋਅ॥
ਅਸੰਖ ਕਹਹਿ ਸਿਰਿ ਭਾਰੁ ਹੋਇ॥
ਅਖਰੀ ਨਾਮੁ ਅਖਰੀ ਸਾਲਾਹ॥
ਅਖਰੀ ਗਿਆਨੁ ਗੀਤ ਗੁਣ ਗਾਹ॥
ਅਖਰੀ ਲਿਖਣੁ ਬੋਲਣੁ ਬਾਣਿ॥
ਅਖਰਾ ਸਿਰਿ ਸੰਜੋਗੁ ਵਖਾਣਿ॥
ਜਿਨਿ ਏਹਿ ਲਿਖੇ ਤਿਸੁ ਸਿਰਿ ਨਾਹਿ॥
ਜਿਵ ਫੁਰਮਾਏ ਤਿਵ ਤਿਵ ਪਾਹਿ॥
ਜੇਤਾ ਕੀਤਾ ਤੇਤਾ ਨਾਉ॥
ਵਿਣੁ ਨਾਵੈ ਨਾਹੀ ਕੋ ਥਾਉ॥
ਕੁਦਰਤਿ ਕਵਣ ਕਹਾ ਵੀਚਾਰੁ॥
ਵਾਰਿਆ ਨ ਜਾਵਾ ਏਕ ਵਾਰ॥
ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਸਾਈ ਭਲੀ ਕਾਰ॥
ਤੂ ਸਦਾ ਸਲਾਮਤਿ ਨਿਰੰਕਾਰ॥ ੧੯॥
ਭਰੀਐ ਹਥੁ ਪੈਰੁ ਤਨੁ ਦੇਹ॥
ਪਾਣੀ ਧੋਤੈ ਉਤਰਸੁ ਖੇਹ॥
ਮੂਤ ਪਲੀਤੀ ਕਪੜੁ ਹੋਇ॥
ਦੇ ਸਾਬੂਣੁ ਲਈਐ ਓਹੁ ਧੋਇ॥
ਭਰੀਐ ਮਤਿ ਪਾਪਾ ਕੈ ਸੰਗਿ॥
ਓਹੁ ਧੋਪੈ ਨਾਵੈ ਕੈ ਰੰਗਿ॥
ਪੁੰਨੀ ਪਾਪੀ ਆਖਣੁ ਨਾਹਿ॥
ਕਰਿ ਕਰਿ ਕਰਣਾ ਲਿਖਿ ਲੈ ਜਾਹੁ॥
ਆਪੇ ਬੀਜਿ ਆਪੇ ਹੀ ਖਾਹੁ॥
ਨਾਨਕ ਹੁਕਮੀ ਆਵਹੁ ਜਾਹੁ॥ ੨੦॥
ਤੀਰਥੁ ਤਪੁ ਦਇਆ ਦਤੁ ਦਾਨੁ॥
ਜੇ ਕੋ ਪਾਵੈ ਤਿਲ ਕਾ ਮਾਨੁ॥
ਸੁਣਿਆ ਮੰਨਿਆ ਮਨਿ ਕੀਤਾ ਭਾਉ॥
ਅੰਤਰਗਤਿ ਤੀਰਥਿ ਮਲਿ ਨਾਉ॥
ਸਭਿ ਗੁਣ ਤੇਰੇ ਮੈ ਨਾਹੀ ਕੋਇ॥
ਵਿਣੁ ਗੁਣ ਕੀਤੇ ਭਗਤਿ ਨ ਹੋਇ॥
ਸੁਅਸਤਿ ਆਥਿ ਬਾਣੀ ਬਰਮਾਉ॥
ਸਤਿ ਸੁਹਾਣੁ ਸਦਾ ਮਨਿ ਚਾਉ॥
ਕਵਣੁ ਸੁ ਵੇਲਾ ਵਖਤੁ ਕਵਣੁ ਕਵਣ ਥਿਤਿ ਕਵਣੁ ਵਾਰੁ॥
ਕਵਣਿ ਸਿ ਰੁਤੀ ਮਾਹੁ ਕਵਣੁ ਜਿਤੁ ਹੋਆ ਆਕਾਰੁ॥
ਵੇਲ ਨ ਪਾਈਆ ਪੰਡਤੀ ਜਿ ਹੋਵੈ ਲੇਖੁ ਪੁਰਾਣੁ॥
ਵਖਤੁ ਨ ਪਾਇਓ ਕਾਦੀਆ ਜਿ ਲਿਖਨਿ ਲੇਖੁ ਕੁਰਾਣੁ॥
ਥਿਤਿ ਵਾਰੁ ਨਾ ਜੋਗੀ ਜਾਣੈ ਰੁਤਿ ਮਾਹੁ ਨਾ ਕੋਈ॥
ਜਾ ਕਰਤਾ ਸਿਰਠੀ ਕਉ ਸਾਜੇ ਆਪੇ ਜਾਣੈ ਸੋਈ॥
ਕਿਵ ਕਰਿ ਆਖਾ ਕਿਵ ਸਾਲਾਹੀ ਕਿਉ ਵਰਨੀ ਕਿਵ ਜਾਣਾ॥
ਨਾਨਕ ਆਖਣਿ ਸਭੁ ਕੋ ਆਖੈ ਇਕ ਦੂ ਇਕੁ ਸਿਆਣਾ॥
ਵਡਾ ਸਾਹਿਬੁ ਵਡੀ ਨਾਈ ਕੀਤਾ ਜਾ ਕਾ ਹੋਵੈ॥
ਨਾਨਕ ਜੇ ਕੋ ਆਪੌ ਜਾਣੈ ਅਗੈ ਗਇਆ ਨ ਸੋਹੈ॥ ੨੧॥
ਪਾਤਾਲਾ ਪਾਤਾਲ ਲਖ ਆਗਾਸਾ ਆਗਾਸ॥
ਓੜਕ ਓੜਕ ਭਾਲਿ ਥਕੇ ਵੇਦ ਕਹਨਿ ਇਕ ਵਾਤ॥
ਸਹਸ ਅਠਾਰਹ ਕਹਨਿ ਕਤੇਬਾ ਅਸੁਲੂ ਇਕੁ ਧਾਤੁ॥
ਲੇਖਾ ਹੋਇ ਤ ਲਿਖੀਐ ਲੇਖੈ ਹੋਇ ਵਿਣਾਸੁ॥
ਨਾਨਕ ਵਡਾ ਆਖੀਐ ਆਪੇ ਜਾਣੈ ਆਪੁ॥ ੨੨॥ 

ਸਾਲਾਹੀ ਸਾਲਾਹਿ ਏਤੀ ਸੁਰਤਿ ਨ ਪਾਈਆ॥
ਨਦੀਆ ਅਤੈ ਵਾਹ ਪਵਹਿ ਸਮੁੰਦਿ ਨ ਜਾਣੀਅਹਿ॥
ਸਮੁੰਦ ਸਾਹ ਸੁਲਤਾਨ ਗਿਰਹਾ ਸੇਤੀ ਮਾਲੁ ਧਨੁ॥
ਕੀੜੀ ਤੁਲਿ ਨ ਹੋਵਨੀ ਜੇ ਤਿਸੁ ਮਨਹੁ ਨ ਵੀਸਰਹਿ॥ ੨੩॥
ਅੰਤੁ ਨ ਸਿਫਤੀ ਕਹਣਿ ਨ ਅੰਤੁ॥
ਅੰਤੁ ਨ ਕਰਣੈ ਦੇਣਿ ਨ ਅੰਤੁ॥
ਅੰਤੁ ਨ ਵੇਖਣਿ ਸੁਣਣਿ ਨ ਅੰਤੁ॥
ਅੰਤੁ ਨ ਜਾਪੈ ਕਿਆ ਮਨਿ ਮੰਤੁ॥
ਅੰਤੁ ਨ ਜਾਪੈ ਕੀਤਾ ਆਕਾਰੁ॥
ਅੰਤੁ ਨ ਜਾਪੈ ਪਾਰਾਵਾਰੁ॥
ਅੰਤ ਕਾਰਣਿ ਕੇਤੇ ਬਿਲਲਾਹਿ॥
ਤਾ ਕੇ ਅੰਤ ਨ ਪਾਏ ਜਾਹਿ॥
ਏਹੁ ਅੰਤੁ ਨ ਜਾਣੈ ਕੋਇ॥
ਬਹੁਤਾ ਕਹੀਐ ਬਹੁਤਾ ਹੋਇ॥
ਵਡਾ ਸਾਹਿਬੁ ਊਚਾ ਥਾਉ॥
ਊਚੇ ਉਪਰਿ ਊਚਾ ਨਾਉ॥
ਏਵਡੁ ਊਚਾ ਹੋਵੈ ਕੋਇ॥
ਤਿਸੁ ਊਚੇ ਕਉ ਜਾਣੈ ਸੋਇ॥
ਜੇਵਡੁ ਆਪਿ ਜਾਣੈ ਆਪਿ ਆਪਿ॥
ਨਾਨਕ ਨਦਰੀ ਕਰਮੀ ਦਾਤਿ॥ ੨੪॥
ਬਹੁਤਾ ਕਰਮੁ ਲਿਖਿਆ ਨਾ ਜਾਇ॥
ਵਡਾ ਦਾਤਾ ਤਿਲੁ ਨ ਤਮਾਇ॥
ਕੇਤੇ ਮੰਗਹਿ ਜੋਧ ਅਪਾਰ॥
ਕੇਤਿਆ ਗਣਤ ਨਹੀ ਵੀਚਾਰੁ॥
ਕੇਤੇ ਖਪਿ ਤੁਟਹਿ ਵੇਕਾਰ॥
ਕੇਤੇ ਲੈ ਲੈ ਮੁਕਰੁ ਪਾਹਿ॥
ਕੇਤੇ ਮੂਰਖ ਖਾਹੀ ਖਾਹਿ॥
ਕੇਤਿਆ ਦੂਖ ਭੂਖ ਸਦ ਮਾਰ॥
ਏਹਿ ਭਿ ਦਾਤਿ ਤੇਰੀ ਦਾਤਾਰ॥
ਬੰਦਿ ਖਲਾਸੀ ਭਾਣੈ ਹੋਇ॥
ਹੋਰੁ ਆਖਿ ਨ ਸਕੈ ਕੋਇ॥
ਜੇ ਕੋ ਖਾਇਕੁ ਆਖਣਿ ਪਾਇ॥
ਓਹੁ ਜਾਣੈ ਜੇਤੀਆ ਮੁਹਿ ਖਾਇ॥
ਆਪੇ ਜਾਣੈ ਆਪੇ ਦੇਇ॥
ਆਖਹਿ ਸਿ ਭਿ ਕੇਈ ਕੇਇ॥
ਜਿਸ ਨੋ ਬਖਸੇ ਸਿਫਤਿ ਸਾਲਾਹ॥
ਨਾਨਕ ਪਾਤਿਸਾਹੀ ਪਾਤਿਸਾਹੁ॥ ੨੫॥
ਅਮੁਲ ਗੁਣ ਅਮੁਲ ਵਾਪਾਰ॥
ਅਮੁਲ ਵਾਪਾਰੀਏ ਅਮੁਲ ਭੰਡਾਰ॥
ਅਮੁਲ ਆਵਹਿ ਅਮੁਲ ਲੈ ਜਾਹਿ॥
ਅਮੁਲ ਭਾਇ ਅਮੁਲਾ ਸਮਾਹਿ॥
ਅਮੁਲੁ ਧਰਮੁ ਅਮੁਲੁ ਦੀਬਾਣੁ॥
ਅਮੁਲੁ ਤੁਲੁ ਅਮੁਲੁ ਪਰਵਾਣੁ॥
ਅਮੁਲੁ ਬਖਸੀਸ ਅਮੁਲੁ ਨੀਸਾਣੁ॥
ਅਮੁਲੁ ਕਰਮੁ ਅਮੁਲੁ ਫੁਰਮਾਣੁ॥
ਅਮੁਲੋ ਅਮੁਲੁ ਆਖਿਆ ਨ ਜਾਇ॥
ਆਖਿ ਆਖਿ ਰਹੇ ਲਿਵ ਲਾਇ॥
ਆਖਹਿ ਵੇਦ ਪਾਠ ਪੁਰਾਣ॥
ਆਖਹਿ ਪੜੇ ਕਰਹਿ ਵਖਿਆਣ॥
ਆਖਹਿ ਬਰਮੇ ਆਖਹਿ ਇੰਦ॥
ਆਖਹਿ ਗੋਪੀ ਤੈ ਗੋਵਿੰਦ॥
ਆਖਹਿ ਈਸਰ ਆਖਹਿ ਸਿਧ॥
ਆਖਹਿ ਕੇਤੇ ਕੀਤੇ ਬੁਧ॥
ਆਖਹਿ ਦਾਨਵ ਆਖਹਿ ਦੇਵ॥
ਆਖਹਿ ਸੁਰਿ ਨਰ ਮੁਨਿ ਜਨ ਸੇਵ॥
ਕੇਤੇ ਆਖਹਿ ਆਖਣਿ ਪਾਹਿ॥
ਕੇਤੇ ਕਹਿ ਕਹਿ ਉਠਿ ਉਠਿ ਜਾਹਿ॥
ਏਤੇ ਕੀਤੇ ਹੋਰਿ ਕਰੇਹਿ॥
ਤਾ ਆਖਿ ਨ ਸਕਹਿ ਕੇਈ ਕੇਇ॥
ਜੇਵਡੁ ਭਾਵੈ ਤੇਵਡੁ ਹੋਇ॥
ਨਾਨਕ ਜਾਣੈ ਸਾਚਾ ਸੋਇ॥
ਜੇ ਕੋ ਆਖੈ ਬੋਲੁਵਿਗਾੜੁ॥
ਤਾ ਲਿਖੀਐ ਸਿਰਿ ਗਾਵਾਰਾ ਗਾਵਾਰੁ॥ ੨੬॥ 

ਸੋ ਦਰੁ ਕੇਹਾ ਸੋ ਘਰੁ ਕੇਹਾ ਜਿਤੁ ਬਹਿ ਸਰਬ ਸਮਾਲੇ॥
ਵਾਜੇ ਨਾਦ ਅਨੇਕ ਅਸੰਖਾ ਕੇਤੇ ਵਾਵਣਹਾਰੇ॥
ਕੇਤੇ ਰਾਗ ਪਰੀ ਸਿਉ ਕਹੀਅਨਿ ਕੇਤੇ ਗਾਵਣਹਾਰੇ॥
ਗਾਵਹਿ ਤੁਹਨੋ ਪਉਣੁ ਪਾਣੀ ਬੈਸੰਤਰੁ ਗਾਵੈ ਰਾਜਾ ਧਰਮੁ ਦੁਆਰੇ॥
ਗਾਵਹਿ ਚਿਤੁ ਗੁਪਤੁ ਲਿਖਿ ਜਾਣਹਿ ਲਿਖਿ ਲਿਖਿ ਧਰਮੁ ਵੀਚਾਰੇ॥
ਗਾਵਹਿ ਈਸਰੁ ਬਰਮਾ ਦੇਵੀ ਸੋਹਨਿ ਸਦਾ ਸਵਾਰੇ॥
ਗਾਵਹਿ ਇੰਦ ਇਦਾਸਣਿ ਬੈਠੇ ਦੇਵਤਿਆ ਦਰਿ ਨਾਲੇ॥
ਗਾਵਹਿ ਸਿਧ ਸਮਾਧੀ ਅੰਦਰਿ ਗਾਵਨਿ ਸਾਧ ਵਿਚਾਰੇ॥
ਗਾਵਨਿ ਜਤੀ ਸਤੀ ਸੰਤੋਖੀ ਗਾਵਹਿ ਵੀਰ ਕਰਾਰੇ॥
ਗਾਵਨਿ ਪੰਡਿਤ ਪੜਨਿ ਰਖੀਸਰ ਜੁਗੁ ਜੁਗੁ ਵੇਦਾ ਨਾਲੇ॥
ਗਾਵਹਿ ਮੋਹਣੀਆ ਮਨੁ ਮੋਹਨਿ ਸੁਰਗਾ ਮਛ ਪਇਆਲੇ॥
ਗਾਵਨਿ ਰਤਨ ਉਪਾਏ ਤੇਰੇ ਅਠਸਠਿ ਤੀਰਥ ਨਾਲੇ॥
ਗਾਵਹਿ ਜੋਧ ਮਹਾਬਲ ਸੂਰਾ ਗਾਵਹਿ ਖਾਣੀ ਚਾਰੇ॥
ਗਾਵਹਿ ਖੰਡ ਮੰਡਲ ਵਰਭੰਡਾ ਕਰਿ ਕਰਿ ਰਖੇ ਧਾਰੇ॥
ਸੇਈ ਤੁਧੁਨੋ ਗਾਵਹਿ ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵਨਿ ਰਤੇ ਤੇਰੇ ਭਗਤ ਰਸਾਲੇ॥
ਹੋਰਿ ਕੇਤੇ ਗਾਵਨਿ ਸੇ ਮੈ ਚਿਤਿ ਨ ਆਵਨਿ ਨਾਨਕੁ ਕਿਆ ਵੀਚਾਰੇ॥
ਸੋਈ ਸੋਈ ਸਦਾ ਸਚੁ ਸਾਹਿਬੁ ਸਾਚਾ ਸਾਚੀ ਨਾਈ॥
ਹੈ ਭੀ ਹੋਸੀ ਜਾਇ ਨ ਜਾਸੀ ਰਚਨਾ ਜਿਨਿ ਰਚਾਈ॥
ਰੰਗੀ ਰੰਗੀ ਭਾਤੀ ਕਰਿ ਕਰਿ ਜਿਨਸੀ ਮਾਇਆ ਜਿਨਿ ਉਪਾਈ॥
ਕਰਿ ਕਰਿ ਵੇਖੈ ਕੀਤਾ ਆਪਣਾ ਜਿਵ ਤਿਸ ਦੀ ਵਡਿਆਈ॥
ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਸੋਈ ਕਰਸੀ ਹੁਕਮੁ ਨ ਕਰਣਾ ਜਾਈ॥
ਸੋ ਪਾਤਿਸਾਹੁ ਸਾਹਾ ਪਾਤਿਸਾਹਿਬੁ ਨਾਨਕ ਰਹਣੁ ਰਜਾਈ॥ ੨੭॥
ਮੁੰਦਾ ਸੰਤੋਖੁ ਸਰਮੁ ਪਤੁ ਝੋਲੀ ਧਿਆਨ ਕੀ ਕਰਹਿ ਬਿਭੂਤਿ॥
ਖਿੰਥਾ ਕਾਲੁ ਕੁਆਰੀ ਕਾਇਆ ਜੁਗਤਿ ਡੰਡਾ ਪਰਤੀਤਿ॥
ਆਈ ਪੰਥੀ ਸਗਲ ਜਮਾਤੀ ਮਨਿ ਜੀਤੈ ਜਗੁ ਜੀਤੁ॥
ਆਦੇਸੁ ਤਿਸੈ ਆਦੇਸੁ॥
ਆਦਿ ਅਨੀਲੁ ਅਨਾਦਿ ਅਨਾਹਤਿ ਜੁਗੁ ਜੁਗੁ ਏਕੋ ਵੇਸੁ॥ ੨੮॥
ਭੁਗਤਿ ਗਿਆਨੁ ਦਇਆ ਭੰਡਾਰਣਿ ਘਟਿ ਘਟਿ ਵਾਜਹਿ ਨਾਦ॥
ਆਪਿ ਨਾਥੁ ਨਾਥੀ ਸਭ ਜਾ ਕੀ ਰਿਧਿ ਸਿਧਿ ਅਵਰਾ ਸਾਦ॥
ਸੰਜੋਗੁ ਵਿਜੋਗੁ ਦੁਇ ਕਾਰ ਚਲਾਵਹਿ ਲੇਖੇ ਆਵਹਿ ਭਾਗ॥
ਆਦੇਸੁ ਤਿਸੈ ਆਦੇਸੁ॥
ਆਦਿ ਅਨੀਲੁ ਅਨਾਦਿ ਅਨਾਹਤਿ ਜੁਗੁ ਜੁਗੁ ਏਕੋ ਵੇਸੁ॥ ੨੯॥
ਏਕਾ ਮਾਈ ਜੁਗਤਿ ਵਿਆਈ ਤਿਨਿ ਚੇਲੇ ਪਰਵਾਣੁ॥
ਇਕੁ ਸੰਸਾਰੀ ਇਕੁ ਭੰਡਾਰੀ ਇਕੁ ਲਾਏ ਦੀਬਾਣੁ॥
ਜਿਵ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਤਿਵੈ ਚਲਾਵੈ ਜਿਵ ਹੋਵੈ ਫੁਰਮਾਣੁ॥
ਓਹੁ ਵੇਖੈ ਓਨਾ ਨਦਰਿ ਨ ਆਵੈ ਬਹੁਤਾ ਏਹੁ ਵਿਡਾਣੁ॥
ਆਦੇਸੁ ਤਿਸੈ ਆਦੇਸੁ॥ 

ਆਦਿ ਅਨੀਲੁ ਅਨਾਦਿ ਅਨਾਹਤਿ ਜੁਗੁ ਜੁਗੁ ਏਕੋ ਵੇਸੁ॥ ੩੦॥ 

ਆਸਣੁ ਲੋਇ ਲੋਇ ਭੰਡਾਰ॥
ਜੋ ਕਿਛੁ ਪਾਇਆ ਸੁ ਏਕਾ ਵਾਰ॥
ਕਰਿ ਕਰਿ ਵੇਖੈ ਸਿਰਜਣਹਾਰੁ॥
ਨਾਨਕ ਸਚੇ ਕੀ ਸਾਚੀ ਕਾਰ॥
ਆਦੇਸੁ ਤਿਸੈ ਆਦੇਸੁ॥ 

ਆਦਿ ਅਨੀਲੁ ਅਨਾਦਿ ਅਨਾਹਤਿ ਜੁਗੁ ਜੁਗੁ ਏਕੋ ਵੇਸੁ॥ ੩੧॥
ਇਕ ਦੂ ਜੀਭੌ ਲਖ ਹੋਹਿ ਲਖ ਹੋਵਹਿ ਲਖ ਵੀਸ॥ 


ਲਖੁ ਲਖੁ ਗੇੜਾ ਆਖੀਅਹਿ ਏਕੁ ਨਾਮੁ ਜਗਦੀਸ॥
ਏਤੁ ਰਾਹਿ ਪਤਿ ਪਵੜੀਆ ਚੜੀਐ ਹੋਇ ਇਕੀਸ॥
ਸੁਣਿ ਗਲਾ ਆਕਾਸ ਕੀ ਕੀਟਾ ਆਈ ਰੀਸ॥
ਨਾਨਕ ਨਦਰੀ ਪਾਈਐ ਕੂੜੀ ਕੂੜੈ ਠੀਸ॥ ੩੨॥
ਆਖਣਿ ਜੋਰੁ ਚੁਪੈ ਨਹ ਜੋਰੁ॥ ਜੋਰੁ ਨ ਮੰਗਣਿ ਦੇਣਿ ਨ ਜੋਰੁ॥
ਜੋਰੁ ਨ ਜੀਵਣਿ ਮਰਣਿ ਨਹ ਜੋਰੁ॥ ਜੋਰੁ ਨ ਰਾਜਿ ਮਾਲਿ ਮਨਿ ਸੋਰੁ॥
ਜੋਰੁ ਨ ਸੁਰਤੀ ਗਿਆਨਿ ਵੀਚਾਰਿ॥ ਜੋਰੁ ਨ ਜੁਗਤੀ ਛੁਟੈ ਸੰਸਾਰੁ॥
ਜਿਸੁ ਹਥਿ ਜੋਰੁ ਕਰਿ ਵੇਖੈ ਸੋਇ॥ ਨਾਨਕ ਉਤਮੁ ਨੀਚੁ ਨ ਕੋਇ॥ ੩੩॥
ਰਾਤੀ ਰੁਤੀ ਥਿਤੀ ਵਾਰ॥ ਪਵਣ ਪਾਣੀ ਅਗਨੀ ਪਾਤਾਲ॥
ਤਿਸੁ ਵਿਚਿ ਧਰਤੀ ਥਾਪਿ ਰਖੀ ਧਰਮ ਸਾਲ॥
ਤਿਸੁ ਵਿਚਿ ਜੀਅ ਜੁਗਤਿ ਕੇ ਰੰਗ॥
ਤਿਨ ਕੇ ਨਾਮ ਅਨੇਕ ਅਨੰਤ॥ ਕਰਮੀ ਕਰਮੀ ਹੋਇ ਵੀਚਾਰੁ॥
ਸਚਾ ਆਪਿ ਸਚਾ ਦਰਬਾਰੁ॥
ਤਿਥੈ ਸੋਹਨਿ ਪੰਚ ਪਰਵਾਣੁ॥
ਨਦਰੀ ਕਰਮਿ ਪਵੈ ਨੀਸਾਣੁ॥
ਕਚ ਪਕਾਈ ਓਥੈ ਪਾਇ॥ ਨਾਨਕ ਗਇਆ ਜਾਪੈ ਜਾਇ॥ ੩੪॥
ਧਰਮ ਖੰਡ ਕਾ ਏਹੋ ਧਰਮੁ॥
ਗਿਆਨ ਖੰਡ ਕਾ ਆਖਹੁ ਕਰਮੁ॥
ਕੇਤੇ ਪਵਣ ਪਾਣੀ ਵੈਸੰਤਰ ਕੇਤੇ ਕਾਨ ਮਹੇਸ॥
ਕੇਤੇ ਬਰਮੇ ਘਾੜਤਿ ਘੜੀਅਹਿ ਰੂਪ ਰੰਗ ਕੇ ਵੇਸ॥
ਕੇਤੀਆ ਕਰਮ ਭੂਮੀ ਮੇਰ ਕੇਤੇ ਕੇਤੇ ਧੂ ਉਪਦੇਸ॥
ਕੇਤੇ ਇੰਦ ਚੰਦ ਸੂਰ ਕੇਤੇ ਕੇਤੇ ਮੰਡਲ ਦੇਸ॥
ਕੇਤੇ ਸਿਧ ਬੁਧ ਨਾਥ ਕੇਤੇ ਕੇਤੇ ਦੇਵੀ ਵੇਸ॥
ਕੇਤੇ ਦੇਵ ਦਾਨਵ ਮੁਨਿ ਕੇਤੇ ਕੇਤੇ ਰਤਨ ਸਮੁੰਦ॥
ਕੇਤੀਆ ਖਾਣੀ ਕੇਤੀਆ ਬਾਣੀ ਕੇਤੇ ਪਾਤ ਨਰਿੰਦ॥
ਕੇਤੀਆ ਸੁਰਤੀ ਸੇਵਕ ਕੇਤੇ ਨਾਨਕ ਅੰਤੁ ਨ ਅੰਤੁ॥ ੩੫॥  

ਗਿਆਨ ਖੰਡ ਮਹਿ ਗਿਆਨੁ ਪਰਚੰਡੁ॥
ਤਿਥੈ ਨਾਦ ਬਿਨੋਦ ਕੋਡ ਅਨੰਦੁ॥ ਸਰਮ ਖੰਡ ਕੀ ਬਾਣੀ ਰੂਪੁ॥
ਤਿਥੈ ਘਾੜਤਿ ਘੜੀਐ ਬਹੁਤੁ ਅਨੂਪੁ॥
ਤਾ ਕੀਆ ਗਲਾ ਕਥੀਆ ਨਾ ਜਾਹਿ॥
ਜੇ ਕੋ ਕਹੈ ਪਿਛੈ ਪਛੁਤਾਇ॥
ਤਿਥੈ ਘੜੀਐ ਸੁਰਤਿ ਮਤਿ ਮਨਿ ਬੁਧਿ॥
ਤਿਥੈ ਘੜੀਐ ਸੁਰਾ ਸਿਧਾ ਕੀ ਸੁਧਿ॥ ੩੬॥
ਕਰਮ ਖੰਡ ਕੀ ਬਾਣੀ ਜੋਰੁ॥
ਤਿਥੈ ਹੋਰੁ ਨ ਕੋਈ ਹੋਰੁ॥ ਤਿਥੈ ਜੋਧ ਮਹਾਬਲ ਸੂਰ॥
ਤਿਨ ਮਹਿ ਰਾਮੁ ਰਹਿਆ ਭਰਪੂਰ॥
ਤਿਥੈ ਸੀਤੋ ਸੀਤਾ ਮਹਿਮਾ ਮਾਹਿ॥
ਤਾ ਕੇ ਰੂਪ ਨ ਕਥਨੇ ਜਾਹਿ॥
ਨਾ ਓਹਿ ਮਰਹਿ ਨ ਠਾਗੇ ਜਾਹਿ॥
ਜਿਨ ਕੈ ਰਾਮੁ ਵਸੈ ਮਨ ਮਾਹਿ॥
ਤਿਥੈ ਭਗਤ ਵਸਹਿ ਕੇ ਲੋਅ॥
ਕਰਹਿ ਅਨੰਦੁ ਸਚਾ ਮਨਿ ਸੋਇ॥
ਸਚ ਖੰਡਿ ਵਸੈ ਨਿਰੰਕਾਰੁ॥
ਕਰਿ ਕਰਿ ਵੇਖੈ ਨਦਰਿ ਨਿਹਾਲ॥
ਤਿਥੈ ਖੰਡ ਮੰਡਲ ਵਰਭੰਡ॥
ਜੇ ਕੋ ਕਥੈ ਤ ਅੰਤ ਨ ਅੰਤ॥
ਤਿਥੈ ਲੋਅ ਲੋਅ ਆਕਾਰ॥
ਜਿਵ ਜਿਵ ਹੁਕਮੁ ਤਿਵੈ ਤਿਵ ਕਾਰ॥
ਵੇਖੈ ਵਿਗਸੈ ਕਰਿ ਵੀਚਾਰੁ॥
ਨਾਨਕ ਕਥਨਾ ਕਰੜਾ ਸਾਰੁ॥ ੩੭॥
ਜਤੁ ਪਾਹਾਰਾ ਧੀਰਜੁ ਸੁਨਿਆਰੁ॥
ਅਹਰਣਿ ਮਤਿ ਵੇਦੁ ਹਥੀਆਰੁ॥
ਭਉ ਖਲਾ ਅਗਨਿ ਤਪ ਤਾਉ॥
ਭਾਂਡਾ ਭਾਉ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਤਿਤੁ ਢਾਲਿ॥
ਘੜੀਐ ਸਬਦੁ ਸਚੀ ਟਕਸਾਲ॥
ਜਿਨ ਕਉ ਨਦਰਿ ਕਰਮੁ ਤਿਨ ਕਾਰ॥
ਨਾਨਕ ਨਦਰੀ ਨਦਰਿ ਨਿਹਾਲ॥ ੩੮॥ ਸਲੋਕੁ॥
ਪਵਣੁ ਗੁਰੂ ਪਾਣੀ ਪਿਤਾ ਮਾਤਾ ਧਰਤਿ ਮਹਤੁ॥
ਦਿਵਸੁ ਰਾਤਿ ਦੁਇ ਦਾਈ ਦਾਇਆ ਖੇਲੈ ਸਗਲ ਜਗਤੁ॥
ਚੰਗਿਆਈਆ ਬੁਰਿਆਈਆ ਵਾਚੈ ਧਰਮੁ ਹਦੂਰਿ॥
ਕਰਮੀ ਆਪੋ ਆਪਣੀ ਕੇ ਨੇੜੈ ਕੇ ਦੂਰਿ॥
ਜਿਨੀ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇਆ ਗਏ ਮਸਕਤਿ ਘਾਲਿ॥
ਨਾਨਕ ਤੇ ਮੁਖ ਉਜਲੇ ਕੇਤੀ ਛੁਟੀ ਨਾਲਿ॥ ੧॥

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